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सैर में तेरी है बुलबुल बोस्ताँ बे-कार है - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

सैर में तेरी है बुलबुल बोस्ताँ बे-कार है

सैर में तेरी है बुलबुल बोस्ताँ बे-कार है

बोस्ताँ ग़ैरत से ख़ुद उजड़ा ख़िज़ाँ बे-कार है

छोड़ कर आँसू को लख़्त-ए-दिल गया हम-राह-ए-आह

नाव ख़ुश्की में चली आब-ए-रवाँ बे-कार है

गह ज़मीं से बाम पर हूँ बाम से गह बर ज़मीं

इस तपिश से अपने घर की नर्दबाँ बे-कार है

आई अब फ़स्ल-ए-गुल और मुझ अंदलीब-ए-ज़ार का

है नशेमन शाख़-ए-गुल पर आशियाँ बे-कार है

यार से और हम से महफ़िल में बचा कर चश्म-ए-ग़ैर

है सुख़न ईमा में बाहम और ज़बाँ बे-कार है

मेरे डर से तू ने बिठलाया था दर पर पासबाँ

सो मैं हसरत से मुआ अब पासबाँ बे-कार है

ख़ल्क़ को मारे है चश्म उस की मुअत्तल है क़ज़ा

फ़ित्ना है उस की निगह में आसमाँ बे-कार है

माँगता हूँ बोसा मैं जिस दम तो उस दम यार के

कार में लब पर नहीं है दिल में हाँ बे-कार है

कार-फ़रमा देख कर ग़ैरों पे मैं उस से कहा

कार है मुझ से भी कुछ बोला कि हाँ बे-कार है

ऐ 'बक़ा'-ए-कारवाँ इस रेख़्ते की हर रदीफ़

गरचे है बे-कार पर बतला कहाँ बे-कार है

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