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रखता है यूँ वो ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम दोश पर - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

रखता है यूँ वो ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम दोश पर

रखता है यूँ वो ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम दोश पर

सय्याद जिस तरह से धरे दाम दोश पर

शाने तलक चढ़े बिन अब आँसू को कब है चैन

सच है कि होवे तिफ़्ल को आराम दोश पर

इक दिन मिला जो शैख़ तो फिर मय-कशों के साथ

सर पर लिए फिरेगा सुबू जाम दोश पर

मिलना तो आज भी न हुआ शब को और उठा

ईफ़ा-ए-व'अदा ऐ बुत ख़ुद-काम दोश पर

है दिल में घर को शहर से सहरा में ले चलें

उठवा के आँसुओं से दर-ओ-बाम दोश पर

वो ज़िश्त-बख़्त हूँ कि मलाएक को भी मिरे

लिखने का पेश आवे जो कुछ काम दोश पर

नेकी मिरी तो नाम बदों के करें रक़म

ज़िश्ती लिखें बदों की मिरे नाम दोश पर

मुतरिब बचों ने शैख़ को टंगिया लिया तमाम

ली वक़्त-ए-जा-ए-ख़िलअ'त-ए-इनआ'म दोश पर

डाला न बार-ए-इश्क़ ज़मीं पर 'बक़ा' ने यार

सर से अगर गिरा तो लिया थाम दोश पर

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