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रह-रवाँ कहते हैं जिस को जरस-ए-महमिल है - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

रह-रवाँ कहते हैं जिस को जरस-ए-महमिल है

रह-रवाँ कहते हैं जिस को जरस-ए-महमिल है

मेहनत-ए-राह से नालाँ वो हमारा दिल है

मौज से बेश नहीं हस्ती-ए-वहमी की नुमूद

सफ़्हा-ए-दहर पे गोया ये ख़त-ए-बातिल है

कुछ तअ'य्युन नहीं इस राह में जूँ रेग-ए-रवाँ

जिस जगह बैठ गए अपनी वही मंज़िल है

आस्तीं हश्र के दिन ख़ून से तर हो जिस की

ये यक़ीं जानियो उस को कि मिरा क़ातिल है

खोल दो उक़्दा-ए-कौनैन 'बक़ा' के पल में

या-अली तुम को ये आसाँ है उसे मुश्किल है

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