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क़ज़ा ने हाल-ए-गुल जब सफ़्हा-ए-तक़दीर पर लिक्खा - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

क़ज़ा ने हाल-ए-गुल जब सफ़्हा-ए-तक़दीर पर लिक्खा

क़ज़ा ने हाल-ए-गुल जब सफ़्हा-ए-तक़दीर पर लिक्खा

मिरी दीवानगी का माजरा ज़ंजीर पर लिक्खा

ज़ईफ़ी से नहीं पैरों के चीं पेशानी-ओ-रू पर

ये ख़त्त-ए-ना-उमीदी है कि रू-ए-पीर पर लिक्खा

नहीं तुझ से हमें दावा-ए-ख़ूँ गर शम्अ ने क़ातिल

अब अपने ख़ूँ का महज़र गर्दन-ए-गुल-गीर पर लिक्खा

ये सब मज़मूँ है शीरीं कोहकन की रू-सपेदी का

जहाँ तक मौज ने सतरों को जू-ए-शीर पर लिक्खा

'बक़ा' के दिल में आ आईना तेरी क़द्र क्या जाने

अबस है नक़्श-ए-गुल गर बुलबुल-ए-तस्वीर पर लिक्खा

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