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मुझे तो इश्क़ में अब ऐश-ओ-ग़म बराबर है - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

मुझे तो इश्क़ में अब ऐश-ओ-ग़म बराबर है

मुझे तो इश्क़ में अब ऐश-ओ-ग़म बराबर है

ब-रंग-ए-साया वजूद-ओ-अदम बराबर है

न कुछ है ऐश से बालीदगी न ग़म से गुदाज़

हमारे काम में सब नोश ओ सम बराबर है

चला है क़ाफ़िला पर हम से ना-तवानों को

हज़ार गाम से अब इक क़दम बराबर है

ब-चश्म-ए-मर्दुम-ए-रौशन-ज़मीर गर पूछो

तो क़द्र-ए-जाम-ए-मय ओ जाम-ए-जम बराबर है

ख़िज़ाँ के रोज़ जो देखा तो अंदलीबों को

सफ़ीर-ए-बूम से अब ज़ेर-ओ-बम बराबर है

बहुत शगुफ़्ता हैं गुलशन में गरचे लाला-ओ-गुल

तुम्हारे चेहरे से पर कोई कम बराबर है

ये रिंद दे गए लुक़्मा तुझे तो उज़्र न मान

तिरा तो शैख़ तनूर ओ शिकम बराबर है

वो मस्त-ए-नाज़-ओ-अदा जिस को रोज़ वादे के

शिकस्त-ए-जाम ओ शिकस्त-ए-क़सम बराबर है

'बक़ा' जो बार न दे हम को अपनी महफ़िल में

तो मर्ग ओ ज़िंदगी अपनी बहम बराबर है

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