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मेरी गो आह से जंगल न जले ख़ुश्क तो हो - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

मेरी गो आह से जंगल न जले ख़ुश्क तो हो

मेरी गो आह से जंगल न जले ख़ुश्क तो हो

अश्क की तुफ़्त से गो जल न जले ख़ुश्क तो हो

पाक करते हुए गर अश्क मिरे दामन का

नाला-ए-गर्म से आँचल न जले ख़ुश्क तो हो

नमी-ए-अश्क के बाइस जो मिरी आह से रात

ज़ेर-ए-रुख़ तकिया-ए-मख़मल न जले ख़ुश्क तो हो

मेहर-वश हुस्न की गर्मी से तिरे वक़्त-ए-अरक़

तन पे गर नीमा-ए-मलमल न जले ख़ुश्क तो हो

साक़िया मौसम-ए-गुल बे-मय-ओ-मीना जो मिरी

आह की बर्क़ से बादल न जले ख़ुश्क तो हो

शोला-रू नित की सवारी में सबब गर्मी के

ज़ेर-ए-राँ गो तिरे कोतल न जले ख़ुश्क तो हो

हो अगर ये दिल-ए-सोज़ाँ तिरे क़ुलियाँ की चिलम

आब-ए-नय से जो ये नर्सल न जले ख़ुश्क तो हो

हाए ऐ आतिश-ए-दिल आब से गर्मी से जला

चश्म-ए-तर की मिरी छागल न जले ख़ुश्क तो हो

तिफ़्ल बद-ख़ू है मिरा अश्क, ख़ुदाया इस की

गो ब-ख़िर्मन हुई कोंपल न जले ख़ुश्क तो हो

ग़र्क़ है अश्क में घर तुझ से अब ऐ नाला-ए-गर्म

गो मिरे सुख का ये मंडल न जले ख़ुश्क तो हो

अश्क से ख़ामा रहे जो मिरे बस में न 'बक़ा'

गो तब-ए-तन से ये बब्बल न जले ख़ुश्क तो हो

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