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मत तंग हो करे जो फ़लक तुझ को तंग-दस्त - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

मत तंग हो करे जो फ़लक तुझ को तंग-दस्त

मत तंग हो करे जो फ़लक तुझ को तंग-दस्त

आहिस्ता खींचिए जो दबे ज़ेर-ए-संग दस्त

गाहे हिना से गाह मिरे ख़ूँ से सुर्ख़ हो

सौ सौ तरह से इस के दिखाते हैं रंग दस्त

देता है कफ़ से दौलत-ए-पा-बोस शम्अ की

रो देगा सर पे धर के फिर आख़िर पतंग दस्त

भर आँख तुझ को ग़ैर ने देखा तो फिर मिरे

लेवेंगे उँगलियों ही से कार-ए-ख़दंग दस्त

जुज़ कुश्त-ओ-ख़ून बे-गुनहाँ आस्तीं से तू

बाहर निकालता है कब ऐ ख़ाना-जंग दस्त

मुफ़्त उस के हाथ अब जो 'बक़ा' सा लगे शिकार

फिर कब करे क़ुसूर ये चर्ख़-ए-पलंग दस्त

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