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जो चश्म-ओ-दिल से चढ़ा दूँ नाले ब-आब-ए-अव्वल दोवम-ब-आतिश - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

जो चश्म-ओ-दिल से चढ़ा दूँ नाले ब-आब-ए-अव्वल दोवम-ब-आतिश

जो चश्म-ओ-दिल से चढ़ा दूँ नाले ब-आब-ए-अव्वल दोवम-ब-आतिश

तो माह-ओ-ख़ुर के भरूँ प्याले ब-आब-ए-अव्वल दोवम-ब-आतिश

जो चश्म रोवे तो दिल भी आहों में मेरी लख़्त-ए-जिगर पिरोवे

जपे वो सुमरन तिरी ये माले ब-आब-ए-अव्वल दोवम-ब-आतिश

जो कोई तुर्बत पे मेरी गुज़रे तो ताब-ए-अश्क-ओ-तब-ए-फ़ुग़ाँ से

पड़ें दो हर हर क़दम पे छाले ब-आब-ए-अव्वल दोवम-ब-आतिश

जो आह-ए-पेचाँ से अश्क शब को फ़लक पे गर्दिश-कुनाँ चढ़ेगा

तो गिर्द-ए-मह दो पड़ेंगे हाले ब-आब-ए-अव्वल दोवम-ब-आतिश

सरिश्क-ओ-आह अब ये बे-असर हैं कि जा फ़लक तक शब-ए-जुदाई

दर-ए-असर पर ये दे हैं ताले ब-आब-ए-अव्वल दोवम-ब-आतिश

मबाद फ़ुर्क़त में चश्म-ओ-दिल की ये अश्क-रेज़ी और आह-ख़ेज़ी

बला-ए-नागह जहाँ पे डाले ब-आब-ए-अव्वल दोवम-ब-आतिश

फ़लक से देवों की तरह उस बिन सरिश्क-ओ-आह-ए-'बक़ा' से अब तो

चढ़े हैं लड़ने को दो रिसाले ब-आब-ए-अव्वल दोवम-ब-आतिश

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