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जब मेरे दिल जिगर की तिलिस्में बनाइयाँ - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

जब मेरे दिल जिगर की तिलिस्में बनाइयाँ

जब मेरे दिल जिगर की तिलिस्में बनाइयाँ

लबरेज़-ए-आब-ए-अश्क कीं आँखों की खाइयाँ

दस्त-ए-हिना से फूट बहा आख़िरश को ख़ूँ

कीं पंजा कर के तुझ से जो ज़ोर-आज़माइयाँ

उस आँख से जब आँख मिलाई तो बहर ने

चश्म-ए-सदफ़ में मौज की फेरीं सलाइयाँ

किस फ़ितना-ए-ज़मीं से ये रहता है शब दो-चार

उड़तीं हैं आसमाँ के जो मुँह पर हवाइयाँ

उस शम्अ-रू ने अपने शहीदों की जूँ पतंग

गड़ने न दीं ज़मीन में लाशें जलाइयाँ

उस क़ंद-लब की दीद से इन पुतलियों को मोर

खावेंगे ज़ेर-ए-ख़ाक समझ कर ख़ताइयाँ

तड़पे बहुत प जानिब-ए-सय्याद आख़िरश

क़ुल्लाब-ए-इश्क़ की कशिशें हम को लाइयाँ

तब सूरतें जो पेश-ए-नज़र थीं सो मिस्ल-ए-अश्क

यूँ गुम हुईं ज़मीं में कि ढूँढे न पाइयाँ

पा कर शिफ़ा बनफ़शा-ए-ख़त से वो अँखड़ियाँ

सेह्हत के दिन भी ख़ून से मेरे नहाइयाँ

माना न तुर्क-ए-चश्म ने आख़िर किया ही क़त्ल

हर-चंद दिल ने दीं तिरे लब की दुहाइयाँ

देखें 'बक़ा' कि हिज्र के आए पे क्या बने

अपने तो होश उड़ गए सुन सुन अदाइयाँ

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