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ग़ैरत-ए-गुल है तू और चाक-गरेबाँ हम हैं - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

ग़ैरत-ए-गुल है तू और चाक-गरेबाँ हम हैं

ग़ैरत-ए-गुल है तू और चाक-गरेबाँ हम हैं

रश्क-ए-सुम्बुल है तिरी ज़ुल्फ़ परेशाँ हम हैं

ना-तवाँ चश्म तिरी हम हैं असा के मुहताज

नित की बीमार वो और तालिब-ए-दरमाँ हम हैं

रश्क-ए-तूती है ख़त-ए-सब्ज़ तिरा हम गोया

दोनों आरिज़ हैं तिरे आइना हैराँ हम हैं

आज-कल हाए तिरे नाज़ के हाथों ऐ यार

सदमा पहुँचे है तिरे क़ल्ब को नालाँ हम हैं

लाला-रूयों की मोहब्बत में अब ऐ सर्व-ए-सही

सर-ब-सर दाग़ तू और सर्व-ए-ख़िरामाँ हम हैं

हम असीर-ए-ख़म-ए-मू तेरे हमारा तू राम

ख़ातिम-ए-जम है तिरे पास सुलैमाँ हम हैं

तू सुख़न-संज 'बक़ा' नाम हमारा मशहूर

ख़ातिम-ए-जम है तिरे पास सुलैमाँ हम हैं

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