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छुप के नज़रों से इन आँखों की फ़रामोश की राह - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

छुप के नज़रों से इन आँखों की फ़रामोश की राह

छुप के नज़रों से इन आँखों की फ़रामोश की राह

अब जो आता है कभी दिल में तो वो गोश की राह

आगे जूँ अश्क वो रहता था सदा पहलू में

क्यूँ अब उस तिफ़्ल ने गुम की मिरी आग़ोश की राह

क्यूँके पोंछेगा वो आ कर मिरे आँसू हैहात

कूचे सब अश्क से गिल हैं नहीं पा-पोश की राह

भर सफ़र नाम जपूँगा तिरा तो राह कटे

यूँ तो तय होगी न उस रह-रव-ए-ख़ामोश की राह

छोड़ कर कूचा-ए-मय-ख़ाना तरफ़ मस्जिद के

मैं तो दीवाना नहीं हूँ जो चलूँ होश की राह

यूँ तो आता नहीं ऐ काश मिरे घर कोई

फेरे नश्शे में ग़लत उस बुत-ए-मय-नोश की राह

डस गईं हाए मिरे दिल के तईं आज 'बक़ा'

नागिनें ज़ुल्फ़ की उस सर से उतर दोश की राह

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