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सुबुक-सरी में भी अंदेशा-ए-हवा रखना - बाक़र नक़वी कविता - Darsaal

सुबुक-सरी में भी अंदेशा-ए-हवा रखना

सुबुक-सरी में भी अंदेशा-ए-हवा रखना

सुलग उठे हो तो जलने का हौसला रखना

नई फ़ज़ा में नए पर निकालने होंगे

फ़लक को ज़ेर-ए-ज़मीं को गुरेज़-पा रखना

तुम्हारे जिस्म के संदल की आबरू है बहुत

हुजूम-ए-शौक़ में रह कर भी फ़ासला रखना

ज़मीन फूल फ़ज़ा नूर आसमान धनक

इन्हीं में रहना मगर रंग भी जुदा रखना

तुम्हारे शहर के लब-बस्ता शाइरों में से हूँ

मिरे लिए भी कोई हर्फ़-ए-बे-नवा रखना

ये ज़ीनतें भी अजब हैं ये सादगी भी अजब

रिया के सारे हुनर जिस्म पर सजा रखना

न जाने कौन सा किस वक़्त काम आ जाए

सो एक जेब में बुत एक में ख़ुदा रखना

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