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खेत से बच कर गुज़रे बस्ती को वीरानी दे - बाक़र नक़वी कविता - Darsaal

खेत से बच कर गुज़रे बस्ती को वीरानी दे

खेत से बच कर गुज़रे बस्ती को वीरानी दे

वो दरिया क्या दरिया जो सागर को पानी दे

शेर सुना कोई ऐसा जिस से लगे बदन में आग

नींद उड़ जाए जिस से ऐसी कोई कहानी दे

सूख रहे हैं बाग़-बग़ीचे नहरें रेत हुईं

ऐ मौसम के मालिक इक मौसम बारानी दे

ख़ुद बनवाए महल दो-महले हम को सुनाए हदीस

ख़ुद तो पहने अबा क़बा हम को उर्यानी दे

तोड़ गई दम आख़िर प्यासी रात अमावस की

प्यारे सूरज अब तो अपने चाँद को पानी दे

कौन सुनेगा तेरा क़िस्सा रोने-धोने का

लैला मजनूँ शामिल कर कोई राजा रानी दे

अब तक तुम ने 'बाक़र' ऐसे कौन से काम किए

किस उम्मीद पे मालिक तुम को नई जवानी दे

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