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ये रात - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

ये रात

सितारे चुप हैं कि चलती है तेज़ तेज़ हवा

ये रात अपनी मोहब्बत की रात भी तो नहीं

फ़ज़ा में यादों के जुगनू चमक रहे हैं अभी

हसीन यादों को लेकिन सबात भी तो नहीं

ग़म-ए-हयात से मानूस हो चला है दिल

नए नए ही सही सानेहात भी तो नहीं

बदल के रख दें जो लैल-ओ-नहार दुनिया के

अभी हयात के वो हादसात भी तो नहीं

वही है ख़ून-ए-तमन्ना वही है हसरत-ए-ग़म

ये मौत भी तो नहीं है हयात भी तो नहीं

ये रात जोहद-ए-मुसलसल की एक रात सही

तबाहियों को लिए बार बार गुज़रेगी

कोई बताए कहाँ तक कि ज़िंदगी की ये रात

फ़सुर्दा गुज़री है और सोगवार गुज़रेगी

अभी तो रोज़ यही फ़िक्र है जिएँ कैसे

अभी तो रात यूँही बे-क़रार गुज़रेगी

सुकून-ए-दिल के लिए आज भी यक़ीं सा है

यही चमन से ख़िज़ाँ शर्मसार गुज़रेगी

नए चराग़ जलाएँ उमीद-ए-फ़र्दा से

कभी तो वादी-ए-ग़म से बहार गुज़रेगी

ये रात एक नई यादगार लाई है

सजा के ज़ख़्मों के फूलों का हार लाई है

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