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टूटे शीशे की आख़िरी नज़्म - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

टूटे शीशे की आख़िरी नज़्म

टूटे शीशे की आख़िरी नज़्म

भागते वक़्त को मैं आज पकड़ लाया हूँ

ये मिरा वक़्त मिरे ज़ेहन की तख़्लीक़ सही

रात और दिन के तसलसुल को परेशाँ कर के

मैं ने लम्हात को इक रूप दिया

सुब्ह को रात की ज़ंजीर से आज़ाद किया

ख़्वाब-ओ-बेदी की दीवार गिरा दी मैं ने

ज़िंदगी मौत से कब तक यूँ हिरासाँ रहती

क्या हुआ वक़्त ओ हक़ीक़त का ज़वाल

मैं

अपनी टूटी हुई ज़ंजीर कहाँ दफ़्न करूँ

हर तरफ़ क़ब्रें मुजाविर हैं

देवताओं के मुक़द्दस अज्साम

हर जगह दफ़्न हैं

कोई वीराना नहीं दूर तलक

क्या मुझे अपने ही ज़ेहन के इस गोशे में

टूटे आदर्शों के आईने में

वक़्त के अक्स को दफ़नाना है

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