रेत और दर्द
मुद्दतें गुज़रीं मिरे दिल को हुए वीराना
आँधियाँ भी नहीं आतीं
कि उड़े रेत मिटे नक़्श-ए-सराब
और इक दर्द का चश्मा
मुंदमिल ज़ख़्मों से फूटे नई ख़ुनकी ले कर
प्यास जाग उट्ठे सुकूत-ए-दिल-ए-मुज़्तर टूटे
ताकि मैं देख सकूँ
अपनी बे-ख़्वाब सी आँखों से वो मंज़र इक दिन
रेत के तोदे फ़ज़ाओं में उड़े जाते हैं
और ख़ुश हो के कहूँ
ज़िंदगी रेत सही दर्द का चश्मा भी तो है
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