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नई जुस्तुजू का अलमिया - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

नई जुस्तुजू का अलमिया

तख़य्युल की ऊँची उड़ानों से आगे

जहाँ ख़्वाब टूटे पड़े हैं

मिरी आरज़ू थी वहाँ जा के देखूँ

रफ़ीक़ों रक़ीबों के चेहरे

मिरी हर बग़ावत पे हँसते रहे हैं

मैं रफ़्तार के दाएरे तोड़ कर

ख़ुदा से परे जा चुका हूँ

फ़रिश्तों की पहली बग़ावत का मंज़र मुझे याद आया

कुछ ऐसा लगा जैसे आदम का सारा अलमिया

नई जुस्तुजू के सहारे हमेशा रहेगा

हर इक बार बाग़ी नए बन के

वो दास्ताँ फिर से दोहरा रहे हैं

ख़ुद इबलीस हैरान है

ख़ैर ओ शर की नई कश्मकश में उलझ कर हर इक बार ये सोचता है

''ख़ुदाया! मैं मज़लूम हूँ

मेरी फ़ितरत में जो सर-कशी थी वो आदम से थी

तेरा बंदा हूँ आजिज़ हूँ तू रहम कर

देख एक मुद्दत से आदम के बेटे

तुझे और मुझे भूल कर

सिर्फ़ बे-नाम बे-सूद से जुस्तुजू के सहारे बढ़े जा रहे हैं

उन्हें तेरी रहमत तेरा क़हर कुछ भी डराता नहीं

मुझे आज पहली दफ़अ डर लगा है

कहीं ये मुझे और तुझे क़ैद कर के

सिर्फ़ तख़्लीक़ के जुर्म में वो सज़ा दें

जिस को लाखों बरस से ये सहते चले आ रहे हैं!''

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