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ख़ामुशी - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

ख़ामुशी

कोई इमेज किसी बात का हसीं साया

नए पुराने ख़यालों का इक अछूता मेल

किसी की याद का भटका हुआ कोई जुगनू

किसी के नीले से काग़ज़ पे चंद अधूरे लफ़्ज़

बग़ावतों का पुराना घिसा पिटा नारा

किसी किताब में ज़िंदा मगर छुपी उम्मीद

पुरानी ग़ज़लों की इक राख बे-दिली ऐसी

ख़ुद अपने आप से उलझन अजीब बे-ज़ारी

ग़रज़ कि मूड के सौ रंग आईने परतव

मगर ये क्या हुआ अब कुछ भी लिख नहीं सकता

न जाने कब से ये बे-मअ'नी ख़ामुशी बे-मुहीत

ख़ुद अपने साए से मैं छुट गया हूँ या शायद

कहीं मैं लफ़्ज़ों की दुनिया को छोड़ आया हूँ

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