जहन्नम
जब पास नहीं कुछ भी मेरे
ख़्वाहिश मक़्सद आदर्श के टूटे आईने
फिर गर्दिश-ए-रोज़-ओ-शब का मुझे एहसास है क्यूँ
क्या ग़म मुझ को जब सुब्ह की कोई फ़िक्र नहीं
और शाम-ए-अलम से डर भी नहीं
वो पाँव में अब चक्कर भी नहीं
साए की कोई हाजत भी नहीं
अब मौत का खटका कोई ख़लिश मौहूम तमन्ना का अरमाँ
कुछ भी तो नहीं
फिर कैसे मैं कहता हूँ मुझे
मौसम के बदलते रंगों का एहसास है बस
ऐसा तो नहीं मैं मर भी चुका
और कोई नहीं है नौहा-कुनाँ
(माज़ी की रिवायत, हाल का ग़म फ़र्दा की उमीदें क्या होंगी)
जब उन से नहीं मैं वाबस्ता
फिर क्या है कोई राज़ तो है
इक आग सी जलती रहती है रग रग में मिरी
इक बे-म'अनी सा दर्द मिरा एहसास जगाता रहता है
इस तरह कि मैं सब कुछ यूँही महसूस करूँ और कुछ न कहूँ
जब तक ये जहन्नम रौशन है
मैं ज़िंदा हूँ
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