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दीमक - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

दीमक

ख़ून का हर इक क़तरा जैसे

दीमक बन कर दौड़े

नाकामी के ज़हर को चाटे

दर्द में घुलता जाए

छलनी जिस्म से रिसते लेकिन

अरमानों के रंग

जिन का रूप में आना मुश्किल

और जब भी अल्फ़ाज़ में ढल कर

काग़ज़ पर बह निकले

ख़ाके तस्वीरों के बनाए

आँखें तारे हाथ शुआएँ

दिल एक सदफ़ है जिस में

कितने सच्चे मोती भरे हुए हैं

बाहर आते ही ये मोती

शबनम बन कर उड़ जाते हैं

जैसे अपना खोया सूरज ढूँड रहे हैं

मैं अपने अंजाम से पहले

शायद इक दिन

इन ख़ाकों में रंग भरूँगा

ये भी तो मुमकिन है लेकिन

मैं भी इक ख़ाका बन जाऊँ

जिस को दीमक चाट रही हो

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