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ज़र्रे का राज़ मेहर को समझाना चाहिए - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

ज़र्रे का राज़ मेहर को समझाना चाहिए

ज़र्रे का राज़ मेहर को समझाना चाहिए

छोटी सी कोई बात हो लड़ जाना चाहिए

ख़्वाबों की एक नाव समुंदर में डाल के

तूफ़ाँ की मौज मौज से टकराना चाहिए

हर बात में जो ज़हर के नश्तर लगाए हैं

ऐसे ही दिल-जलों से तो याराना चाहिए

क्या ज़िंदगी से बढ़ के जहन्नम नहीं कोई

ये सच है फिर तो आग में जल जाना चाहिए

दुनिया वो शाहराह है बचना मुहाल है

पगडंडियों को ढूँढ के अपनाना चाहिए

नज़्में वो हों कि चीख़ पड़ें सारे अहल-ए-फ़न

नींदें उड़ा दे सब की वो अफ़्साना चाहिए

बहरों को तोड़ तोड़ के नाले में डाल दो

बस दिल की लय में फ़िक्र को ढल जाना चाहिए

ये कहकशाँ भी टूट के हो मिस्रओं में जज़्ब

ज़ेहन-ए-रसा को इतना तो उलझाना चाहिए

हम 'यूलिसीस' बन के बहुत जी चुके मगर

यारो 'हुसैन' बन के भी मर जाना चाहिए

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