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वो रिंद क्या कि जो पीते हैं बे-ख़ुदी के लिए - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

वो रिंद क्या कि जो पीते हैं बे-ख़ुदी के लिए

वो रिंद क्या कि जो पीते हैं बे-ख़ुदी के लिए

सुरूर चाहिए वो भी कभी कभी के लिए

ये क्या कि बज़्म में शमएँ जला के बैठे हो

कभी मिलो तो सर-ए-राह दुश्मनी के लिए

अवध की शाम रफ़ीक़ों को मह-जबीनों को

हर एक छोड़ के आए थे बम्बई के लिए

मगर ये क्या कि ब-जुज़-दर्द कुछ हमें न मिला

अजीब शहर है ये एक अजनबी के लिए

हज़ार चाहें न छूटेगी हम से ये दुनिया

यहीं रहेंगे मोहब्बत की बे-कसी के लिए

कोई पनाह नहीं कोई जा-ए-अमन नहीं

हयात जोहद-ए-मुसलसल है आदमी के लिए

ये कह रहा है कोई अपने जाँ-निसारों से

कुछ और चाहिए अब रस्म-ए-आशिक़ी के लिए

कहाँ कहाँ न पुकारा कहाँ कहाँ न गए

बस इक तबस्सुम-ए-पिन्हाँ की रौशनी के लिए

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