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जो ज़माने का हम-ज़बाँ न रहा - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

जो ज़माने का हम-ज़बाँ न रहा

जो ज़माने का हम-ज़बाँ न रहा

वो कहीं भी तो कामराँ न रहा

इस तरह कुछ बदल गई है ज़मीं

हम को अब ख़ौफ़-ए-आसमाँ न रहा

जाने किन मुश्किलों से जीते हैं

क्या करें कोई मेहरबाँ न रहा

ऐसी बेगानगी नहीं देखी

अब किसी का कोई यहाँ न रहा

हर जगह बिजलियों की यूरिश है

क्या कहीं अपना आशियाँ न रहा

मुफ़लिसी क्या गिला करें तुझ से

साथ तेरा कहाँ कहाँ न रहा

हसरतें बढ़ के चूमती हैं क़दम

मंज़िलों का कोई निशाँ न रहा

ख़ून-ए-दिल अपना जल रहा है मगर

शम्अ के सर पे वो धुआँ न रहा

ग़म नहीं हम तबाह हो के रहे

हादसा भी तो ना-गहाँ न रहा

क़ाफ़िले ख़ुद सँभल सँभल के बढ़े

जब कोई मीर-ए-कारवाँ न रहा

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