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इस दर्जा हुआ ख़ुश कि डरा दिल से बहुत मैं - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

इस दर्जा हुआ ख़ुश कि डरा दिल से बहुत मैं

इस दर्जा हुआ ख़ुश कि डरा दिल से बहुत मैं

ख़ुद तोड़ दिया बढ़ के तमन्नाओं का धागा

ताकि न बनूँ फिर कहीं इक बंद-ए-मजबूर

हाँ क़ैद-ए-मोहब्बत से यही सोच के भागा

ठोकर जो लगी अपने अज़ाएम ने सँभाला

मैं ने तो कभी कोई सहारा नहीं माँगा

चलता रहा मैं रेत पे प्यासा तन-ए-तन्हा

बहती रही कुछ दूर पे इक प्यार की गंगा

मैं तुझ को मगर जान गया शम-ए-तमन्ना

समझी थी कि जल जाएगा शाएर है पतिंगा

आँखों में अभी तक है ख़ुमार-ए-ग़म-ए-जानाँ

जैसे कि कोई ख़्वाब-ए-मोहब्बत से है जागा

जो ख़ुद को बदल देते हैं इस दौर में 'बाक़र'

करते हैं हक़ीक़त में वो सोने पे सुहागा

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