इस दर्जा हुआ ख़ुश कि डरा दिल से बहुत मैं
इस दर्जा हुआ ख़ुश कि डरा दिल से बहुत मैं
ख़ुद तोड़ दिया बढ़ के तमन्नाओं का धागा
ताकि न बनूँ फिर कहीं इक बंद-ए-मजबूर
हाँ क़ैद-ए-मोहब्बत से यही सोच के भागा
ठोकर जो लगी अपने अज़ाएम ने सँभाला
मैं ने तो कभी कोई सहारा नहीं माँगा
चलता रहा मैं रेत पे प्यासा तन-ए-तन्हा
बहती रही कुछ दूर पे इक प्यार की गंगा
मैं तुझ को मगर जान गया शम-ए-तमन्ना
समझी थी कि जल जाएगा शाएर है पतिंगा
आँखों में अभी तक है ख़ुमार-ए-ग़म-ए-जानाँ
जैसे कि कोई ख़्वाब-ए-मोहब्बत से है जागा
जो ख़ुद को बदल देते हैं इस दौर में 'बाक़र'
करते हैं हक़ीक़त में वो सोने पे सुहागा
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