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फ़रेब खा के भी शर्मिंदा-ए-सुकूँ न हुए - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

फ़रेब खा के भी शर्मिंदा-ए-सुकूँ न हुए

फ़रेब खा के भी शर्मिंदा-ए-सुकूँ न हुए

न कम हुआ किसी मंज़िल पे वलवला दिल का

ये सोच कर तिरी महफ़िल से हम चले आए

कि एक बार तो बढ़ जाए हौसला दिल का

पलट के अब न कभी लखनऊ से गुज़रेगा

निकल गया है बहुत दूर क़ाफ़िला दिल का

हरीफ़-ए-इश्क़ कोई हो हरीफ़-ए-ग़म तो नहीं

किसी से हो न सकेगा मुक़ाबला दिल का

कोई किसी का नहीं हम-ज़बाँ ज़माने में

करें तो किस से करें जा के अब गिला दिल का

शिकस्त खाने का यारा नहीं प क्या कीजे

इक अजनबी से पड़ा है मुक़ाबला दिल का

तुम्हारी नज़्र भी लाए जो हम तो क्या लाए

ज़रा सँभाल के रखना ये आबला दिल का

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