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दीवानगी की राह में गुम-सुम हुआ न था! - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

दीवानगी की राह में गुम-सुम हुआ न था!

दीवानगी की राह में गुम-सुम हुआ न था!

दुनिया में अपना कोई कहीं आश्ना न था!

धड़कन का दर्द जिस्म को तड़पा के रह गया

रग रग में एक शोर-ए-मसीहा बपा न था!

इक कश्मकश के बा'द तअ'ल्लुक़ नहीं रहा

बेगाना हो के हम से वो लेकिन ख़फ़ा न था!

दीवार-ओ-दर पे पर्दे लटकते थे हर तरफ़

इफ़्लास कोने कोने में लेकिन छुपा न था!

ज़ंजीरें लाख टूटीं मगर ख़ौफ़-ए-हुक्मराँ

मजबूरियों के जाल से कोई रिहा न था!

इक अपनी चीख़ से लरज़ उठ्ठे थे बाम-ओ-दर

आई न बाज़गश्त कोई हम-नवा न था!

आते रहे न जाने कहाँ से ख़तों पे ख़त

बे-नूर चश्म-ए-नम ने किसी को पढ़ा न था!

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