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चाहा बहुत कि इश्क़ की फिर इब्तिदा न हो - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

चाहा बहुत कि इश्क़ की फिर इब्तिदा न हो

चाहा बहुत कि इश्क़ की फिर इब्तिदा न हो

रुस्वाइयों की अपनी कहीं इंतिहा न हो

जोश-ए-वफ़ा का नाम जुनूँ रख दिया गया

ऐ दर्द आज ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ से सिवा न हो

ये ग़म नहीं कि तेरा करम हम पे क्यूँ नहीं

ये तो सितम है तेरा कहीं सामना न हो

कहते हैं एक शख़्स की ख़ातिर जिए तो क्या

अच्छा यूँही सही तो कोई आसरा न हो

ये इश्क़ हद्द-ए-ग़म से गुज़र कर भी राज़ है

इस कशमकश में हम सा कोई मुब्तिला न हो

इस शहर में है कौन हमारा तिरे सिवा

ये क्या कि तू भी अपना कभी हम-नवा न हो

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