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बहुत ज़ी-फ़हम हैं दुनिया को लेकिन कम समझते हैं! - बाक़र मेहदी कविता - Darsaal

बहुत ज़ी-फ़हम हैं दुनिया को लेकिन कम समझते हैं!

बहुत ज़ी-फ़हम हैं दुनिया को लेकिन कम समझते हैं!

अजब क़िस्सा है सब कुछ जान कर मुबहम समझते हैं

हवाएँ तेज़-तर हैं आज बादल आने वाले हैं

तड़पते सर्द झोंकों को भी सब मौसम समझते हैं

ज़मीं करवट बदलती है नए रंगों में ढलती है

नुजूमी किस तरह दुनिया के पेच-ओ-ख़म समझते हैं

फ़लक ग़ाएब हुआ ये चाँद तारे ख़ाक-दाँ से हैं

इन्हें भी लोग इक दुनिया नया आलम समझते हैं

बहुत दाना-ए-राज़ आए हज़ारों नुक्ता-दाँ आए

समझने के लिए वो ज़िंदगी को ग़म समझते हैं

हुई तख़्लीक़ कैसे आज तक कोई नहीं समझा

निकाले कब गए ये हज़रत आदम समझते हैं

न कोई अश्क-शोई है न चेहरा ज़र्द है 'बाक़र'

हमारी ख़ामुशी को फिर भी वो मातम समझते हैं

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