ज़िंदगी से ज़िंदगी रूठी रही
आदमी से आदमी बरहम रहा
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वा'दे झूटे क़स्में झूटी
हम ने जिन को सच्चा जाना
जाने क्या सोच के घर तक पहुँचा
संदेसा
लोग चले हैं सहराओं को
मैं किनारे पे खड़ा हूँ तो कोई बात नहीं
मुझे इक शेर कहना है
कैसा लम्हा आन पड़ा है
हर कूचे में अरमानों का ख़ून हुआ
कम कम रहना ग़म के सुर्ख़ जज़ीरों में
उम्र भर कुछ ख़्वाब दिल पर दस्तकें देते रहे
सब्र-ओ-ज़ब्त की जानाँ दास्ताँ तो मैं भी हूँ दास्ताँ तो तुम भी हो