सिर्फ़ मौसम के बदलने ही पे मौक़ूफ़ नहीं
दर्द भी सूरत-ए-हालात बता देता है
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कैसा लम्हा आन पड़ा है
वा'दे झूटे क़स्में झूटी
नए समय की कोयल
एक उलझन रात दिन पलती रही दिल में कि हम
ज़िंदगी से ज़िंदगी रूठी रही
मैं किनारे पे खड़ा हूँ तो कोई बात नहीं
हर कूचे में अरमानों का ख़ून हुआ
दर्द उट्ठा था मिरे पहलू में
अब नहीं दर्द छुपाने का क़रीना मुझ में
गर्मी-ए-शिद्दत-ए-जज़्बात बता देता है
क्या पूछते हो मैं कैसा हूँ