मैं किनारे पे खड़ा हूँ तो कोई बात नहीं
बहता रहता है तिरी याद का दरिया मुझ में
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माँ
गर्मी-ए-शिद्दत-ए-जज़्बात बता देता है
सब्र-ओ-ज़ब्त की जानाँ दास्ताँ तो मैं भी हूँ दास्ताँ तो तुम भी हो
क्या कहें क्या हुस्न का आलम रहा
जिस्म अपने फ़ानी हैं जान अपनी फ़ानी है फ़ानी है ये दुनिया भी
लोग चले हैं सहराओं को
वा'दे झूटे क़स्में झूटी
दर्द उट्ठा था मिरे पहलू में
तू ख़ुश है अपनी दुनिया में
क्या पूछते हो मैं कैसा हूँ
कैसा लम्हा आन पड़ा है