लोग चले हैं सहराओं को
और नगर सुनसान पड़ा है
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सिर्फ़ मौसम के बदलने ही पे मौक़ूफ़ नहीं
ज़िंदगी से ज़िंदगी रूठी रही
कैसा लम्हा आन पड़ा है
सब्र-ओ-ज़ब्त की जानाँ दास्ताँ तो मैं भी हूँ दास्ताँ तो तुम भी हो
तू ख़ुश है अपनी दुनिया में
हर कूचे में अरमानों का ख़ून हुआ
मुझे इक शेर कहना है
नए समय की कोयल
जिस्म अपने फ़ानी हैं जान अपनी फ़ानी है फ़ानी है ये दुनिया भी
जाने क्या सोच के घर तक पहुँचा
क्या कहें क्या हुस्न का आलम रहा