बीसवीं सदी के हम शाइ'र-ए-परेशाँ हैं
बीसवीं सदी के हम शाइ'र-ए-परेशाँ हैं
मसअलों में उलझे हैं फ़िक्र-ओ-ग़म में ग़लताँ हैं
डूब कर उभर आए मौत से गले मिल कर
अपनी सख़्त-जानी के ख़ुद ही हम निगहबाँ हैं
हम तो ठहरे दीवाने हम तो ठहरे सहराई
अहल-ए-फ़हम-ओ-दानिश के चाक क्यूँ गरेबाँ हैं
कब हिसाब माँगा था आप की जफ़ाओं का
क्यूँ झुकी झुकी नज़रें किस लिए पशेमाँ हैं
आज तक है ग़म ताज़ा दोस्त से बिछड़ने का
अब भी आँखें रोती हैं ज़ख़्म-ए-दिल-फरोज़ाँ हैं
सब के हम रहे अपने कौन है मगर अपना
ढूँढते हैं अपनों को हम भी कितने नादाँ हैं
'ताहिरा' ज़माने की करवटों का क्या कहना
होंगे ये भी वीराने आज जो गुलिस्ताँ हैं
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