हार जाएगी यक़ीनन तीरगी
गर मुसलसल रौशनी ज़िंदा रही
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ऐसी होने लगी थकन उस को
दो क़दम साथ क्या चला रस्ता
जब कोई टीस दिल दुखाती है
पावँ से काँटा निकल जाए अगर
क्यूँ छुपाते हो किधर जाना है
हवा के दोश पर लगता है उड़ने
बे-ख़ुदी साथ है मज़े में हूँ
कोई मंज़िल कभी नहीं आई
तू भले मेरा ए'तिबार न कर
चलूँगा कब तलक तन्हा सफ़र में
खुला मकान है हर एक ज़िंदगी 'आज़र'