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दिसम्बर की आवाज़ - बलराज कोमल कविता - Darsaal

दिसम्बर की आवाज़

दिसम्बर चीख़ता है जब रगों में

लुत्फ़ से आरी परेशाँ महफ़िलों में

मुझ को वो बदनाम दुश्मन याद आता है

जो मेरे ख़ून का प्यासा गली से जब गुज़रता था

मिरे आ'साब में इक सनसनी सी दौड़ जाती थी

मैं इस लम्हे की बरहम आग में जलता हुआ

महसूस करता था

मैं ज़िंदा हूँ मुसलसल हूँ

मैं ज़िंदा हूँ मुसलसल हूँ

वो दुश्मन मर गया

या दोस्तों आ आ मिला

में सोचता हूँ पूछता हूँ

कौन बतलाएगा

मेरे फ़िक्र और एहसास की बे-सम्त रौ

बहती है रोज़-ओ-शब

दिसम्बर चीख़ता है अब

कहाँ मंज़िल कहाँ मंज़िल

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