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तहलील - बलराज कोमल कविता - Darsaal

तहलील

मैं रात और दिन की

मसाफ़त में

रंगों की तफ़्सीर में

अपने सारे अज़ीज़ों के

अपने ही हाथों से

क़त्ल-ए-मुसलसल में मसरूफ़ हूँ

फिर मैं क्यूँ सोचता हूँ

सर-ए-जाम, हर शब

कि दीदा-वरी की मता-ए-फ़िरोज़ाँ से

सरशार होता

तो हर ख़ुफ़्ता सर-बस्ता तहरीर से

मैं गले मिल के रोता

सदाओं की सरगोशियों में उतरता

अजब हादसा है कि कुछ देर पहले

मिरे सामने एक घायल परिंदा

गिरा है मिरे पाँव में

सामने के फ़सुर्दा ओ बे-बर्ग

बे-रंग से पेड़ से

मेरे जाम-ए-शिकस्ता में

बाक़ी थे क़तरे मय-ए-ख़ाम के कुछ

इन्हें चश्म-ए-मिन्क़ार से ये मुसाफ़िर

बड़े ग़ौर से देखता है

इन्हें गिन रहा है ये शायद

मैं सैलाब-ए-तहलील में हूँ

यहाँ से कहाँ जाऊँगा

दूर गर जा सकता तो वहाँ से

यहाँ लौट कर किस तरह

आऊँगा मैं

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