सर-ए-राहगुज़र एक मंज़र
क़फ़स का दर खुला इक नीम-जाँ कम-सिन
परिंदा चंद ख़स्ता ज़ाइचों पर रक़्स के अंदाज़ में आगे
बढ़ा, फिर चोंच से अपना पसंदीदा
मुसव्वर ज़ाइचा उस ने उठाया और अपने ही
हिदायत-कार के आगे
अदब से रख दिया झुक कर
हिदायत-कार गरचे नूर से था बद-गुमाँ महरूम ना-ख़्वांदा
सर-ए-सैल-ए-रवाँ इक बर्ग-ए-बे-माया
नविश्त-ए-बख़्त के असरार से वाक़िफ़ था वो शायद
नज़र के रू-ब-रू उस ने
मता-ए-बे-निहायत के फ़साने से मुझे ख़ुश-हाल कर डाला
मुझे पामाल कर डाला
सभी मौज-ए-ज़िया में थे
सभी के चश्म ओ दिल में एक शोला था
सभी ख़ामोश गुम-सुम हैं
यहाँ से कौन जाएगा
यहाँ पर कौन आएगा
परिंदा नीम-जाँ कम-सिन
क़फ़स में जा चुका कब का
हिदायत-कार की आँखों में लौट आई है वीरानी
जो कल ख़ाली था वो दस्त-ए-तलब है आज भी ख़ाली
लबों पर लुत्फ़-ए-अंदाम-ए-निहाँ की अन-सुनी गाली
(1320) Peoples Rate This