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नन्हा शहसवार - बलराज कोमल कविता - Darsaal

नन्हा शहसवार

शहसवार

नन्हा-मुन्ना शहसवार

ईस्तादा है

ख़मीदा पुश्त पर मेरी

जूँ-ही झुकता हूँ

वो तर्ग़ीब देता है

मुझे चलने की

आवाज़ों की सरगम से

मैं चलता हूँ

मैं वामाँदा क़दम चलता हूँ

वो महमेज़ की जुम्बिश से कहता है कि दौड़ो

और दौड़ो, तेज़-तर, सरपट चलो

बाद-ए-नग़्मा-कार से बातें करो

उस का मैं रख़्श-ए-रज़ा

तेज़-तर करता हूँ रफ़्तार-ए-ख़िराम

मुझ को पहुँचाना है आज

उस को रंगों तितलियों के देस में

जादू-नगर में

मेरे साए का भी अब शायद जहाँ

मुंतज़िर कोई नहीं

मुंतज़िर हैं उस के लेकिन, मेरे नन्हे दोस्त के

देव-क़ामत सब्ज़ वारफ़्ता-वक़ार

दूर तक सरगोशियाँ करते हुए अश्जार

रक़्स-ए-बर्ग-ओ-बार

जा रहा है ख़्वाब की रफ़्तार से

दीवाना-वार

मेरा नन्हा शहसवार

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