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गिर्या-ए-सगाँ - बलराज कोमल कविता - Darsaal

गिर्या-ए-सगाँ

जब कुत्ते रात को रोते हैं

तो अक्सर लोग समझते हैं

कुछ ऐसा होने वाला है

जो हम ने अब तक सोचा था न ही समझा था

जो होना था वो कब का लेकिन हो भी चुका

ये शहर जला

इस शहर में रौशन हँसते बस्ते घर थे कई

सब राख हुए

और उन के मकीं

कुछ क़त्ल हुए

कुछ जान बचा कर भाग गए

जो बा-इस्मत थीं

रुस्वाई की ख़ाक ओढ़ के राहगुज़र पर बैठी हैं

कुछ बेवा हैं

कुछ पा-बस्ता रिश्तों की वहशत सहती हैं

कुछ अध-नंगे भूके बच्चे

दिन भर आवारा फिरते हैं

हर जानिब मुजरिम ही मुजरिम

उन में से कुछ हैं पेशा-वर

कुछ सीख रहे हैं जुर्म के फ़न के राज़ नए असरार नए

जो होना था ये सच है उस में से तो बहुत कुछ हो भी चुका

लेकिन शायद कुछ और भी होने वाला है

कुत्ते तो आख़िर कुत्ते हैं

दिन भर कचरे के ढेरों पर

वो मारे मारे फिरते हैं

जब रात उतरने लगती हैं

आने वाले दुश्मन-मौसम की दहशत से

सब मिल कर रोने लगते हैं

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