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ड्रग स्टोर - बलराज कोमल कविता - Darsaal

ड्रग स्टोर

अगर मैं जिस्म हूँ तो सर से पाँव तक मैं जिस्म हूँ

अगर मैं रूह हूँ तो फिर तमाम-तर मैं रूह हूँ

ख़ुदा से मेरा सिलसिला वही है जो सबा से है

अगर मैं सब्ज़ पेड़ हूँ

तो रूह और जिस्म की

वो कौन सी हदें हैं फ़ासलों में जो बदल गईं

ज़मीन मेरी कौन है

चमकता नील-गूँ हसीन आसमान कौन है

जो बर्ग ओ गुल में धीरे धीरे जज़्ब हो रही है धूप

ज़र्द धूप क्यूँ मुझे अज़ीज़ है

ये सोचता हूँ सब मगर मैं ताक़चों में बंद यूँ

मैं नाम कोई ढूँढता हूँ आज अपने कर्ब का

तलाश कर रहा हूँ एक एक पल

क़तार-दर-क़तार शीशों के इस हुजूम में

वो आसमान क्या हुआ वो सब्ज़ पेड़ क्या हुआ

जिगर में आग थी मगर जिगर सुफ़ूफ़ बन गया

जो सुर्ख़ था कभी मिरा लहू सपीद हो गया

मैं बोटियों में कट गया

मैं धज्जियों में नुच गया

यहाँ पे मेरी रौशनी, यहाँ पे मेरी ज़िंदगी

सपैद, सुर्ख़, ज़र्द, नीलगूँ, सियाह, लेबलों में बट गई

सबा की रहगुज़र से दूर हट गई

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