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दिल का मोआ'मला वही महशर वही रहा - बलराज कोमल कविता - Darsaal

दिल का मोआ'मला वही महशर वही रहा

दिल का मोआ'मला वही महशर वही रहा

अब के बरस भी रात का मुंतज़िर वही रहा

नौमीद हो गए तो सभी दोस्त उठ गए

वो सैद-ए-इंतिक़ाम था दर पर वही रहा

सारा हुजूम पा-पियादा चूँ-कि दरमियाँ

सिर्फ़ एक ही सवार था रहबर वही रहा

सब लोग सच है बा-हुनर थे फिर भी कामयाब

ये कैसा इत्तिफ़ाक़ था अक्सर वही रहा

ये इर्तिक़ा का फ़ैज़ था या महज़ हादिसा

मेंडक तो फ़ील-पा हुए अज़दर वही रहा

सब को हुरूफ़-ए-इल्तिजा हम नज़्र कर चुके

दुश्मन तो मोम हो गए पत्थर वही रहा

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