उतर जाता तो रुस्वाई बहुत होती
कि सर का बोझ भी दस्तार जैसा था
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तअ'ल्लुक़ तर्क तो कर लें सभी से
तिरा लहज़ा वही तलवार जैसा था
सम्त दुनिया के हम गए ही नहीं
मैं सारे फ़ासले तय कर चुका हूँ
और कुछ देर ग़म नज़र में रख
बात बिगड़ी हुई बनी सी रही
वही आँसू वही माज़ी के क़िस्से
आइने में है फिर वही सूरत
एक नश्शा है ख़ुद-नुमाई भी
मिरे कुछ भी कहे को काटता है
बार-ए-दीगर ये फ़लसफ़े देखूँ
हादसात अब के सफ़र में नए ढब से आए