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चाल अपनी अदा से चलते हैं - बकुल देव कविता - Darsaal

चाल अपनी अदा से चलते हैं

चाल अपनी अदा से चलते हैं

हम कहाँ कज-रवी से टलते हैं

ज़िंदगी बे-रुख़ी से पेश न आ

तुझ पे एहसाँ मिरे निकलते हैं

कारदाँ हैं बला के सब चेहरे

आइने को हुनर से छलते हैं

कोई आतिश-फ़िशाँ है सीने में

अश्क मिस्ल-ए-शरर निकलते हैं

उस के तर्ज़-ए-सुख़न के मारे लोग

अपना लहजा कहाँ बदलते हैं

आज सो लूँ कि है सुहुलत-ए-शब

दिन कहाँ रोज़ रोज़ ढलते हैं

आ गई लौ ख़िज़ाँ की पर्बत तक

वादियों में चिनार जलते हैं

पंजा-ए-ज़ेहन के तले पैहम

ताइर-ए-दिल कई मचलते हैं

ख़्वाब का जिन न आएगा बाहर

बे-सबब आप आँख मलते हैं

तुझ से किरदार हों 'बकुल' जिन में

ऐसे क़िस्से कहाँ सँभलते हैं

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