घर भी वीराना लगे ताज़ा हवाओं के बग़ैर
बाद-ए-ख़ुश-रंग चले दश्त भी घर लगता है
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जो पी रहा है सदा ख़ून बे-गुनाहों का
अहल-ए-ज़र ने देख कर कम-ज़रफ़ी-ए-अहल-ए-क़लम
कोई शय दिल को बहलाती नहीं है
समुंदर का तमाशा कर रहा हूँ
कभी आँखों पे कभी सर पे बिठाए रखना
उसी के ज़ुल्म से मैं हालत-ए-पनाह में था
वही पत्थर लगा है मेरे सर पर
रुत न बदले तो भी अफ़्सुर्दा शजर लगता है
रुख़-ए-हयात है शर्मिंदा-ए-जमाल बहुत