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उसी के ज़ुल्म से मैं हालत-ए-पनाह में था - बख़्श लाइलपूरी कविता - Darsaal

उसी के ज़ुल्म से मैं हालत-ए-पनाह में था

उसी के ज़ुल्म से मैं हालत-ए-पनाह में था

हर इक नफ़स मिरा जिस शख़्स की पनाह में था

चमक रहा था वो ख़ुर्शीद-ए-दो-जहाँ की तरह

वो हाथ जो कि गरेबान-ए-कज-कुलाह में था

उफ़ुक़ उफ़ुक़ को पयाम-ए-सहर दिया मैं ने

मिरा क़याम अगरचे शब-ए-सियाह में था

महक रहे थे नज़र में गुलाब सपनों के

खुली जो आँख तो देखा मैं क़त्ल-गाह में था

मिरे हरीफ़ मुझे रौंद कर निकल न सके

फ़सील-ए-संग की सूरत खड़ा मैं राह में था

जो बात बात पे करता था इंक़लाब की बात

सजी सलीब तो वो हामियान-ए-शाह में था

अदू की फ़ौज ने लूटा तो क्या सितम ये है

'रईस'-ए-शहर भी शामिल इसी सिपाह में था

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