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रुख़-ए-हयात है शर्मिंदा-ए-जमाल बहुत - बख़्श लाइलपूरी कविता - Darsaal

रुख़-ए-हयात है शर्मिंदा-ए-जमाल बहुत

रुख़-ए-हयात है शर्मिंदा-ए-जमाल बहुत

जमी हुई है अभी गर्द-ए-माह-ओ-साल बहुत

गुरेज़-पा है जो मुझ से तिरा विसाल तो क्या

मिरा जुनूँ भी है आमादा-ए-ज़वाल बहुत

मुझे हर आन ये देता है वस्ल की लज़्ज़त

वफ़ा-शनास है तुझ से तिरा ख़याल बहुत

किताब-ए-ज़ीस्त के हर इक वरक़ पे रौशन हैं

तिरी फ़सुर्दा-निगाही के ख़द्द-ओ-ख़ाल बहुत

पलट गए जो परिंदे तो फिर गिला क्या है

हर एक शाख़-ए-शजर पर बिछे हैं जाल बहुत

तुम्हें है नाज़ अगर अपने हुस्न-ए-सरकश पर

तू मेरा इश्क़ भी है रू-कश-ए-जमाल बहुत

अज़ान-ए-सुब्ह की हर लै के तार टूट गए

फ़रोग़-ए-ज़ुल्मत-ए-शब का ये है कमाल बहुत

किसी भी प्यास के मारे की प्यास बुझ न सकी

समुंदरों में तो आते रहे उछाल बहुत

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