क़ातिल हुआ ख़मोश तो तलवार बोल उठी
क़ातिल हुआ ख़मोश तो तलवार बोल उठी
मक़्तल में ख़ून-ए-गर्म की हर धार बोल उठी
पूछा सुबुक सरों का नुमाइंदा कौन है
सुन कर फ़क़ीह-ए-शहर की दस्तार बोल उठी
अहल-ए-सितम के ख़ौफ़ से जो चुप थी वो ज़बाँ
जब बोलने पे आई सर-ए-दार बोल उठी
मेरी तबाहियों की है इस में ख़बर ज़रूर
अज़ ख़ुद हर एक सुर्ख़ी-ए-अख़बार बोल उठी
चेहरा था ज़ख़्म ज़ख़्म कोई पूछता न था
यूसुफ़ बने तो गर्मी-ए-बाज़ार बोल उठी
इक नाख़ुदा ही यूरिश-ए-तूफ़ाँ पे चुप रहा
चप्पू कभी तो और कभी पतवार बोल उठी
कुछ इस तरह से नक़्श थे ईंटों पे साँचे के
ज़िंदाँ में मुझ को देख के दीवार बोल उठी
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