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पड़े हैं राह में जो लोग बे-सबब कब से - बख़्श लाइलपूरी कविता - Darsaal

पड़े हैं राह में जो लोग बे-सबब कब से

पड़े हैं राह में जो लोग बे-सबब कब से

पुकारती है उन्हें मंज़िल-ए-तलब कब से

ये और बात मकीनों को कुछ ख़बर न हुई

लगा रहे थे मुहाफ़िज़ मगर नक़ब कब से

कोई भी हर्बा-ए-तश्हीर कारगर न हुआ

तमाशबीं ही रही शोहरत-ए-अदब कब से

उखड़ गई हैं तनाबें सितम के ख़ेमों की

उलट गई है बिसात-ए-हसब-नसब कब से

न हौसला है दुआ का न आह पर है यक़ीं

कि हम से रूठ गया है हमारा रब कब से

समुंदरों से कोई मौज-ए-सर-बुलंद उठे

कि साहिलों पे तड़पते हैं जाँ-ब-लब कब से

वो हम ने चुन दिए तन्क़ीद की सलीबों पर

मचल रहे थे जो कुछ हर्फ़ ज़ेर-ए-लब कब से

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