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मिरे हर लफ़्ज़ की तौक़ीर रहने के लिए है - बख़्श लाइलपूरी कविता - Darsaal

मिरे हर लफ़्ज़ की तौक़ीर रहने के लिए है

मिरे हर लफ़्ज़ की तौक़ीर रहने के लिए है

मैं ज़िंदा हूँ मिरी तहरीर रहने के लिए है

सितम-गर ने जो पहनाई मिरे दस्त-ए-तलब में

ये मत समझो कि वो ज़ंजीर रहने के लिए है

मिरा आईना-ए-तसनीफ़ देता है गवाही

मिरा हर नुक़्ता-ए-तफ़सीर रहने के लिए है

रहेगा तू न तेरा ज़ुल्म पर रोज़-ए-अबद तक

हमारे दर्द की जागीर रहने के लिए है

जिसे मेरी निगाहों ने कभी देखा नहीं है

मिरे दिल में वही तस्वीर रहने के लिए है

सर-ए-बातिल किया दो लख़्त जिस ने भी जहाँ में

सलामत बस वही शमशीर रहने के लिए है

जुनून-ए-शौक़-ए-तख़रीब-ए-जहाँ मिट कर रहेगा

मगर हर जज़्बा-ए-तामीर रहने के लिए है

न लिखा शेर कोई और समझ बैठे हैं नादाँ

अदब में हरबा-ए-तशहीर रहने के लिए है

गुज़र जाएँगे हम दार-ए-फ़ना से 'बख़्श' लेकिन

हमारे शेर की तासीर रहने के लिए है

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