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कोई शय दिल को बहलाती नहीं है - बख़्श लाइलपूरी कविता - Darsaal

कोई शय दिल को बहलाती नहीं है

कोई शय दिल को बहलाती नहीं है

परेशानी की रुत जाती नहीं है

हमारे ख़्वाब चोरी हो गए हैं

हमें रातों को नींद आती नहीं है

कोई तितली कमाँ-दारों के डर से

फ़ज़ा में पँख फैलाती नहीं है

हर इक सूरत पे गर्द-ए-मस्लहत है

कोई सूरत हमें भाती नहीं है

जिस आज़ादी के नग़्मे हैं ज़बाँ पर

वो आज़ादी नज़र आती नहीं है

बदन बे-हरकत-ओ-बे-हिस पड़े हैं

लहू की बूँद गरमाती नहीं है

मुसलसल होश की चाबुक-ज़नी से

मिरी आशुफ़्तगी जाती नहीं है

ज़वाल-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न की 'बख़्श' तोहमत

जलाल-ए-हर्फ़ पर आती नहीं है

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